Thursday 8 August 2013

बरसात के बाद

बरसात के बाद एक चीज़ जो समान रूप से भारत के सभी शहरों में मिलती है वो है गड्ढों में सड़कें, ओह नहीं नहीं मेरा मतलब सडकों में गड्ढे। पर एक बात की ख़ुशी है कि आजकल बारिश भी यहाँ के लोगों की हालत समझती है इसीलिए रात भर बरस कर सुबह होते होते चली जाती है ताकि पानी को भी वापस अपनी जगह छोड़ने का मौका मिल जाए वरना तो अगर दिन में हो जाये तो पहचानना मुश्किल हो जाए कि कौनसे रास्ते में थोडा कम "ज्यादा" पानी भरा है। आज जब दफ्तर गया तो पानी सडकों से ठीक उसी तरह उतर चुका था जैसे सड़क बनाने वालों की आत्मा से उतर चुका है। हमारा शहर "विकास पुरुष" का क्षेत्र होने के कारण बाकि शहरों की तुलना में थोड़े कम गड्ढे हैं और वो भी इतने खतरनाक नहीं कि किसी की जान जा सके। बस ज्यादा से ज्यादा एक आध हड्डी टूट सकती है या फिर थोड़ी चोट आ सकती है पर दो चार हजार से ज्यादा के खर्चे की चोट नहीं लग सकती। वैसे किसी की किस्मत ही ख़राब हो तो बात अलग है फिर उसे तो घर बैठे भी दिल का दौर पड़ सकता है। सबसे बड़ा डर तो आस पास चलती या सामने से आती बसों और कारों से होता है जो ना जाने कब सड़क पर पड़े पानी से हमारी पतलून पर कोई समझ न आने वाला चित्र बना दे। असली मर्द तो वही जो सड़कों की ऐसी हालत में भी साफ़ कपड़ों में दफ्तर पहुँच जाए। खैर मुझे तो आदत है इसी तरह जीने की फिर मिलूँगा अपने दफ्तर के रस्ते के किसी और दृश्य के साथ। तब तक ख्याल रखियेगा। जय हिन्द।

Sunday 4 August 2013

गौ माता

कई दिनों बाद आज थोड़ी राहत मिली दफ्तर तो जाना था नहीं बस थोडा घूमना हुआ किसी काम से, रविवार होने के कारण रास्ते में ट्रैफिक पुलिस वालों की संख्या नहीं के बराबर थी वरना तो अक्सर डर लगा रहता है कि कहीं किसी ना किसी कारण से रोक ना लें, खैर आज उनकी जिम्मेदारी गायों ने संभाल ली थी और वो भी बड़े अच्छे ढंग से। जहाँ चौराहे के बीच में कोई निर्धारित घेरा या घुमटी नहीं है वहां वो बीच में बैठ कर चौराहे के चारों रास्तों का अलग अलग निर्धारण कर रही थीं। एक गाय सड़क के बिलकुल मोड़ पर खड़ी रह कर अचानक से यु टर्न लेने वालों को रोक रही थी तो दूसरी सड़क के बीचो बीच खड़ी रह कर डिवाइडर की भूमिका निभा रही थी। एक गाय ट्रैफिक तो नहीं संभाल रही थी मगर सड़क के एक तरफ शांत भाव से बैठ कर आँखे बंद किये ऐसी लग रही थी जैसे मानव सभ्यता की किसी गंभीर समस्या पर चिंतन कर रही हो। हालाँकि थोड़े दिन पहले ही एक गाय की टक्कर से एक व्यक्ति की मौत होने के बाद सरकार ने कुछ फैसले तो लिए है जैसे कि सड़क किनारे घास चारा बेचने पर प्रतिबन्ध और अपने पशु खुल्ले सड़क पर छोड़ने वालों पर कानूनी कार्यवाही मगर मुझे पूरी उम्मीद है कि हिन्दुस्तान में आने वाले कुछ समय तक तो सड़कों पर हमें गौ माता का आशीर्वाद मिलता रहेगा।

Friday 2 August 2013

तरक्की

बात करता हूँ आज की। मेरे दफ्तर जाने के रास्ते में कुल 4 चौराहे आते हैं, बाकि 3 तो इतने व्यस्त और संकरे होते हैं कि किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं बचती, मगर जो आखिरी चौराहा होता है वहां काफी जगह है। यूँ समझ लीजिये कि गाडी वालों के अलावा तकरीबन चारों किनारे मिला कर 15 भिखारी खड़े हो सकते हैं। मेरा जिस तरफ से जाना और रुकना होता है वहां अक्सर एक बूढ़ी औरत और एक  बच्चे के भीख मांगने के अलावा एक पति पत्नी हाथ में बच्चों के खिलौने लिए हुए खुद्दारी के साथ बड़ी बड़ी कारों के अन्दर इस उम्मीद से देखते हैं कि शायद आज भर पेट खाना खाने लायक पैसे मिल जाएँ, क्यूंकि मुझे नहीं लगता किसी और चीज़ के लिए उन्हें पैसों की जरुरत होगी, सड़क किनारे फुटपाथ पर ही उनका बसेरा है, जिसमे दो पेड़ों के बीच अपनी चुनरी बांध कर पत्नी अपने बच्चे को उसमे सुला कर खिलौने बेचने में पति का हाथ बटाती है ताकि तीनो का पेट भर सके। बीच बीच में तिरछी नजर से माँ बाप दोनों अपने बेटे को देख लेते हैं ताकि उसका सुरक्षा सुनिश्चित कर लें। अगर कोई गाडी वाला आकर उस पेड़ के पास खड़ा भी होता है तो दोनों की निगाहें बस उसी पर टिकी रहती है और उसके जाने के बाद ही वापस अपने काम पर लगते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि ये सब जिस चौराहे पर होता है उसका नाम इनकम टैक्स चौराहा है क्यूंकि वंहा इनकम टैक्स भवन है। जब इनकम टैक्स विभाग का विज्ञापन आता है टीवी में कि देश की तरक्की में योगदान दें अपना आयकर समय पर चुकाएं तो बरबस ही उनकी याद आ जाती है और अपने आप से पूछता हूँ कौनसी तरक्की??  फिर याद आता है दिन ब दिन चौराहे पर रुकने वाली कारों की संख्या बढती जा रही है।

परिचय और उद्देश्य

पहले जब किसी का लिखा कुछ भी पढता था तो कई बार हैरान होता था कि लेखक इतना कुछ कैसे सोच लेते हैं? मगर जब खुद लिखने लगा तो पता चला कि उन्हें सोचने की जरुरत नहीं होती, अपने आप ही उनकी नजर ऐसी हो जाती है कि जो किसी और के लिए आम बात हो, या आसानी से अनदेखा कर दिया जाये उसमे भी ना जाने क्या क्या देख लेते हैं, अक्सर वो चेहरे जो भीड़ में रह कर भीड़ का ही हिस्सा हो जाने की कोशिश करते है, वो नजर जाते है, साथ ही उनके चेहरे पर फैली बेबसी और भी अनगिनत भावनाएं जो अपने अस्तित्व को नकारने का भरसक प्रयास करती हैं, लेखक की नजर में जाती है और वो सब कुछ जब लिखा जाता है तो लगता है जैसे कोई बिलकुल नई कहानी निकल कर रही है।
मैं भी जब अपने दफ्तर जाता हूँ तो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा नजर आ जाता है जिस पर शायद दुनिया की निगाह या तो पड़ती नहीं या फिर कोई गौर करना नहीं चाहता। खैर इन आँखों में ना जाने क्यूँ किसी की बेबसी, मजबूरी, खुद्दारी और भी ना जाने क्या क्या नजर आ जाती है और फिर अपने आप से नजरें चुराने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता।  कोशिश करूँगा आपसे उन सब बातों को, उन लोगों को और वो सब कुछ साझा कर सकूँ जो रास्ते में नजर आता है और दिल में उतर जाता है।