Friday 2 August 2013

तरक्की

बात करता हूँ आज की। मेरे दफ्तर जाने के रास्ते में कुल 4 चौराहे आते हैं, बाकि 3 तो इतने व्यस्त और संकरे होते हैं कि किसी के खड़े होने की जगह ही नहीं बचती, मगर जो आखिरी चौराहा होता है वहां काफी जगह है। यूँ समझ लीजिये कि गाडी वालों के अलावा तकरीबन चारों किनारे मिला कर 15 भिखारी खड़े हो सकते हैं। मेरा जिस तरफ से जाना और रुकना होता है वहां अक्सर एक बूढ़ी औरत और एक  बच्चे के भीख मांगने के अलावा एक पति पत्नी हाथ में बच्चों के खिलौने लिए हुए खुद्दारी के साथ बड़ी बड़ी कारों के अन्दर इस उम्मीद से देखते हैं कि शायद आज भर पेट खाना खाने लायक पैसे मिल जाएँ, क्यूंकि मुझे नहीं लगता किसी और चीज़ के लिए उन्हें पैसों की जरुरत होगी, सड़क किनारे फुटपाथ पर ही उनका बसेरा है, जिसमे दो पेड़ों के बीच अपनी चुनरी बांध कर पत्नी अपने बच्चे को उसमे सुला कर खिलौने बेचने में पति का हाथ बटाती है ताकि तीनो का पेट भर सके। बीच बीच में तिरछी नजर से माँ बाप दोनों अपने बेटे को देख लेते हैं ताकि उसका सुरक्षा सुनिश्चित कर लें। अगर कोई गाडी वाला आकर उस पेड़ के पास खड़ा भी होता है तो दोनों की निगाहें बस उसी पर टिकी रहती है और उसके जाने के बाद ही वापस अपने काम पर लगते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि ये सब जिस चौराहे पर होता है उसका नाम इनकम टैक्स चौराहा है क्यूंकि वंहा इनकम टैक्स भवन है। जब इनकम टैक्स विभाग का विज्ञापन आता है टीवी में कि देश की तरक्की में योगदान दें अपना आयकर समय पर चुकाएं तो बरबस ही उनकी याद आ जाती है और अपने आप से पूछता हूँ कौनसी तरक्की??  फिर याद आता है दिन ब दिन चौराहे पर रुकने वाली कारों की संख्या बढती जा रही है।

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